*लोग जलाने आते हैं मुझे*
हंसकर भी आंसू छिपाने आते हैं मुझे
जख्म हैं नासूर, फिर भी गीत खुशी के गाने आते हैं मुझे।
बेगाने तो क्या? अपने भी नहीं समझते
रिश्तों की डगर बचाने के बहाने आज भी आते हैं मुझे।।
इस दौर में मुझे कोई पागल ही समझ ले
यूं बेवजह हंसकर भी फटे जख्म सिलाने आते हैं मुझे।
अफसोस की हकीम दर-बदर की खा रहे हैं ठोकरें आज
घी डाल-डालकर बुझते दिये आज भी जलाने आते हैं मुझे।।
जलाता गया मैं भी दिये की कोई हवा देता गया
रोशनी की खातिर निशां कदमों के हटाने आते हैं मुझे।
कसूर यही कि जी नहीं सकता अंधेरे में
तभी रोशनी की आड़ में लोग जलाने आते हैं मुझे।।
*दीपक भारद्वाज*
सुन्दर पंक्तियाँ दीपक जी
बहुत सुन्दर…..