ग़ज़ल/हिंदी
सागर में भटकी कश्ती को साहिल का खाब हैI
मौजों की भी रवानी पे पूरा शबाब है II
हम नज्म-ए-जिंदगी हर्फ के हर्फ पढ़ गए,
गो वर्क आख़िरी पे ये मुश्किल किताब है I
हर ओर विद्या धन सत्ता बल का खुमार है,
मदहोश न वशर हो वही लाजबाब है I
खादिम है वो तो जनता का सालों से कह रहा,
सुवहा तो मिट गया है वो अब बेनकाब है I
दुनिया को कब तलक तुम रखोगे वहम में ही,
उतरेगा खुदबखुद ही ये झूठा खिज़ाब है I
दिल थामें फिर रहे हैं वो जो वुल-हवस से लोग,
बावस्ता हुस्न तेरे से जिसपे हिजाब है I
लोगों को मार गिनते हैं ‘कंवर’ वो तेरे नाम,
दुनियाँ में तेरी मालिक ये कैसा हिसाब है I
डॉ. कंवर करतार
‘शैल निकेत ‘ अप्पर बड़ोल
धर्मशाला
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बहुत सुंदर क्या बात है!
बहुत अच्छी गजल