साँच नींम ??
साँच को सुन कर पचाना, क्या कहें ।
सुन के मीठा मुस्कराना , क्या कहें ।।
एक नस्तर सा है चुभता, साँच से।
उतना दिल न जल धधकी आँच से।।
झूठ का मुख पे ख़ज़ाना क्या कहें।
सुन•••••••••
झूठ चलता लज्जतों से शान से ।
मेवे मिसिरी भोगते आराम से ।।
साँच नींबू नमक खाना क्या कहें ।
सुन•••••••
साग छिलके बिदुर के घर खा लिए।
राजशाही झूठ के घर ना लिए।।
कृष्ण तुमको समझ पाना क्या कहें।
स्याह होते थे जो मुखड़े झूठ से ।
सहम जाते थे जो मुखड़े झूठ से।।
मख्खनबाज़ी खिलखिलाना क्या कहें।
सुन•••••••••
रिश्ते भी अब आसमान में उड़ते हैं।
अपनें अपनों से कहाँ अब जुड़ते हैं।।
पत्ता पत्ता बिखर जाना क्या कहें ।
सुन••••
साँच-नींम की कड़वाहट बेकार नहीं।
प्यार नहीं वो यार नहीं परिवार नहीं।।
अपना घर लगता बेगाना क्या कहें।
सुन••••••••••
?पंडित अनिल?
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित
अहमदनगर , महाराष्ट्र
8968361211
??हमदर्द ???
बेदर्द बन कर दर्दे दिल की दास्ताँ सुनते रहे।
हम मुक़म्मल ज़िंदगी के राज सुनाते रहे।।
अपनी धुन में वो रहे हमदर्द सा दिखते रहे।
बेरुखी से सिर मेरा यूँ हँसते सहलाते रहे।।
ग़मजदा ये दिल रहा गर्दिश में कुछ तारे रहे।
ऐसे में कुछ दोस्त भी खिल्लियां उड़ाते रहे।।
वो रहे पत्थर बने हम अपने दिल को क्या कहें।
मोम की मानिंद अपने दिल को पिघलाते रहे।।
दस्तूर कायेनात की समझूँ भला कैसे अनिल।
और उलझी ज़िंदगी हम जितनी सुलझाते रहे।।
पंडित अनिल
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित
अहमदनगर, महाराष्ट्र
8968361211
एक श्रधांजलि उन मासूम बच्चों को जिन्होंने अभी ज़िन्दगी का चेहरा भी न देखा था। ??
क्या सुनाऊँ जग को ”
मालिक तेरी अदालत में, अर्ज़ी लगा दिया है ।
तेरी रजा मे दिल को हमने मना लिया।।
क्या सुनाऊँ जग को, तुझको सुना दिया है ।
क़ाबिल रहा न फिर भी तूँनें दिया बहुत कुछ।
जग ने दिया जरा तो, कह दिया बहुत कुछ।।
तूँने भर दिया खजाना, बिन कहे शुक्रिया है।
क्या • • • • •
दस्तूर हैं जगत के , अनोखे बड़े निराले।
तेरे बिना यहाँ पर , कोई नहीं सम्हाले ।।
कौन है अपुन का , जग ने जता दिया है।
क्या सुनाऊँ • • •
हर दिल में बस रहा है परमात्मा अनिल।
प्यासी रही उमर भर , ये आतमा अनिल।।
इस लिये अस्थियों को , गंगा बहा दिया।
क्या सुनाऊँ • • •
परिचय
पंडित अनिल शर्मा ” जगमग”
सुबेदार / धार्मिक शिक्षक
भारतीय थल सेना
अहमदनगर , महाराष्ट्रस्थायी पता
ग्राम व पत्रालय , पिंडी
देवरिया उ० प्र०सन् 1981 से हिन्दी व भोजपुरी में काब्य लेखन
आकाशवाणी गोरखपुर से 1995 तक नियमित काब्य पाठ,
गोरखपुर दूरदर्शन से काब्य पाठ
राष्ट्रीय सहारा समाचारपत्र मे 1995 तक कविताएँ छपीं,
1995 तक ही काब्य मंचों पे खूब काब्य पाठ ,
1995 से सेना की सेवा में है अब तक और , मंचों से जरा दूर हैं ।
भारत का खजाना देश की सबसे बड़ी ऑनलाइन पत्रिका लेकर आए हैं “काव्य महक” का प्रथम अंक
रचनाकार हैं
डॉ प्रत्युष गुलेरी
श्री अशोक दर्द
पंडित अनिल
डॉ कुशल कटोच
श्री विजय भरत दीक्षित
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