ग़ज़ल
212 212 212 212
दूर मुझसे तो बो हो गया है कहीं
यादें सारी मिरी धो गया है कहीं
अब नहीं आंयेंगे ख्वाब आँखों में यूँ
चैन दिल का मिरा खो गया हैं कहीं
दर्द बढ़ता गया सर्कुँ भी जाता रहा
कोई तो बेगाना हो गया है कहीं
नींद आती नहीं रातें कटती नहीं
दिल कोई तोड़ कर सो गया है कहीं
लफ्ज़ मिलते नहीं शेर लिखुं तो क्या
दिल दिवाना मिरा खो गया है कहीं
जख्म सूखे नहीं पाया मरहम नहीं
दर्द देकर ही तो वो गया है कहीं
कैसे मानूं मैं बातें यूँ तेरी बता
कौन मेरे लिये रो गया है कहीं।
सुरेश भारद्वाज निराश
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