ग़ज़ल
दिख रहा मुझको अलग ही इक ख़्वाब है
आज कल ये दिल बहुत ही बेताब है
प्यार समझूं या समझ लूँ कुछ और मैं
उसने ख़त में लिख दिया बस आदाब है
दोस्ती वो चाहते अब शायद नहीं
देखिये आया उधर से तेजाब है
दोस्ती में ही मिला है धाेखा मुझे
अब तो दिल में बस गमों का तालाब है
दर्द कम कर दे सुनाकर मेरा ग़ज़ल
कौन ऐसा इस नगर में सीमाब है
अब चलूं मैं नाव लेकर किस और को
इस समन्दर में बहुत ही गिरदाब है
कब किसी ने प्यार से है देखा मुझे
ज़िंदगी में नफ़रताें का सैलाब है
ऐ खुदा कैसे मनाये आज़म उन्हें
आज भी नाराज़ उससे अहबाब है
आज़म सावन खान
गिरदाब भंवर सैलाब
सीमाब कोई महान कवि
अहबाब दोस्त
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