” ज़िंदगी ”
कुछ दिनों से नींद,रूठी सी लगे है ।
ज़िंदगी खट्टी सी,मीठी सी लगे है ।।
डाल जाता है , कोई चिंगारियाँ ।
उनको शायद,ये अँगीठी सी लगे है।।
खिले दानों सा, भुना पर मुस्कुराया ।
ज़िंदगी मक्के सी, सिमटी सी लगे है ।।
चमचमाये जड़ नगीने, सी कभी ।
दुनिया अपनी तो,अँगूठी सी लगे है ।।
भूल जाते हैं,ग़म-ए-फ़ुर्कत कभी ।
संदूक में रक्खी सी,चिट्ठी सी लगे है।।
तीखी रसीली सी,कभी लगती अनिल।
पर कभी बेस्वाद, फीकी सी लगे है ।।
कुछ दिनों से • • • • • •
ज़िंदगी खट्टी • • • • •
पं अनिल
अहमदनगर महाराष्ट्र