ज़िंदगी
ज़िंदगी बस तमाम होती जा रही है ।
यूँ समझिये शाम होती जा रही है ।।
मुस्कुराते हैं मगर ख़ुश हैं कहाँ।
हँसी भी इल्ज़ाम होती जा रही है।।
ज़ख़्म मत दिखलाईये सरेआम यूँ।
बेदिली अब आम होती जा रही है।।
बेआबरू से पेश क्यूँ आते हैं सब।
आबरू नीलाम होती जा रही है।।
रहनुमाँ थीं अनिल जो भी बस्तियाँ।
अजी अब बदनाम होती जा रही है ।।
पं अनिल
अहमदनगर महाराष्ट्र
स्वरचित अप्रकाशित
8968361211