दिवा स्वप्न
एक टूटा सा सपना देखा
अनजाना सा अपना देखा
दुनिया का यह मेला देखा
जिस में एक अकेला देखा
समझदार एक बचपन देखा
बूढा एक लड़कपन देखा
बरसों बरस समझ न पाया
ऐसा एक सहभागी देखा
बिन जाने जो सब कुछ जाने
ऐसा एक वैरागी देखा
न जाने क्या- क्या सब देखा
जग देखा -या सपना देखा
पर कुछ भी न अपना देखा
पर कुछ भी न अपना देखा …
गिरिजा गुलेरी डोगरा
बहुत सुंदर दिवा स्वप्न इक मैं ने देखा। रात को दिन में ढलते देखा।
बेगानों को अपने बनते देखा, अपनों को मैंने लुटते देखा।
बहुत खूब गिरिजा की मैंने कविता को देखा।
बहुत सुन्दर सृजन बधाई जी