नज़र में अंधेरा छाने लगा है
उजाला आँख दिखलाने लगा है
दिलो जाँ से जिसे हमने सराहा
सितम दिल पे वही ढाने लगा है
रगो में बन के बहता था लहू जो
उसी से दिल ये घबराने लगा है
उठा के खाक से जिसने बिठाया
उसी का गम हमें खाने लगा है
उजालो की हमें आदत नहीं थी
अंधेरा खुद पे इतराने लगा है
पनाहों में अदब से सर झुका के
बे खुदी में वो शरमाने लगा है
( लक्ष्मण दावानी ✍ )
6/6/2017
आई – 11 पंचशील नगर
नर्मदा रोड़ ( जबलपुर म,प्र, )
आदते अपनी भुलाने क्यूँ लगे हो
जख्म पे मरहम लगाने क्यूँ लगे हो
दर्द देना तो तिरी आदत है यारा
दर्द पे आँसू बहाने क्यूँ लगे हो
खास थे तेरी निगाहों में कभी हम
आज नजरो से गिराने क्यूँ लगे हो
चाँद उतरा ही नहीं है मेरे अंगना
मुख आँचल में छुपाने क्यूँ लगे हो
तारे टूटा करते है हर दिन यहाँ पर
नींदे अपनी यूँ उडाने क्यूँ लगे हो
वक़्त गर तुम्हे मिले तो ये बता देना
ख्वाब में आकर सताने क्यूँ लगे हो
अँधेरे तो जुगनू से डरते यहाँ पर
तुम दिल अपना जलाने क्यूँ लगे हो
( लक्ष्मण दावानी ✍ )
12/10/2016
आई – 11 पंचशील नगर
नर्मदा रोड़ ( जबलपुर म,प्र, )
बहुत खूब… वाह..
नावाजिशो का तहेदिल से शुक्रिया आदरणीय बहुत आभार ??