पिता
तरु से लिपटे ज्यों लता
तुझसे भी मैं त्यों पिता
डूबे स्नेह सागर में तेरे
बचपन मेरा हुआ जवां
तेरे आश्रय में आनन्दित
खिलूँ सुता मैं अति प्रसन्न
उन्मुक्त झूमती बन पतंग
चंचल ज्यों अर्णव तरंग
हो धैर्य ओत-प्रोत तुम
प्रेरणा का स्रोत तुम
सीखती सहस्र गुण
ज्ञान का भी स्रोत तुम
शान तुम सम्मान तुम
अमित गुणों की खान तुम
हर्षित दिखे अपर्णा श्री
कीर्ति-गृह वरदान तुम
न वैर से न द्वेष से
न कलह से न क्लेश से
भर श्रम के विभिन्न रंग
हो जीतते प्रत्येक जंग
सुत ललाट ताज तुम
सुता में रमती लाज तुम
इंदिरा तन आभूष तुम
“पीयूष” हो, “पीयूष” तुम I
“पीयूष” तुम, “पीयूष” तुम I
डॉ. राधिका गुलेरी भारद्वाज
०३.१०.२०१७, कुवैत I
सुंन्दर रचना।
धन्यवाद!
अति सुन्दर और भावपूर्ण एवं सत्य की प्रतीक रचना। मुबारक राधिका सुंदर लेखनी।
धन्यवाद!