एक ताज़ातरीन ग़ज़ल
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सियासत में पुराना हो गया है।
वो जाहिल अब सयाना हो गया है।
बड़े लोगों में उठना-बैठना है,
ज़रा ऊँचा घराना हो गया है।
सुना है आजकल उन कोठियों में,
बड़ा पीना-पिलाना हो गया है।
शहर से दूर का वह फ़ार्म-हाउस,
दलाली का ठिकाना हो गया है।
बिना मेहनत करोड़ों की कमाई,
हुई है तो ख़ज़ाना हो गया है।
भले ही साथ खेले थे कभी हम,
मगर अब तो ज़माना हो गया है।
उसे तो वोट लेना है हमारा,
मुहल्ला तो बहाना हो गया है।
हमारी नाम भर की दोस्ती ‘बृज’,
महज़ दिल का जलाना हो गया है।
–बृज राज किशोर “राहगीर”