ग़ज़ल—
झूठ से पर्दा उठाती है कलम I
आयना सच का दिखाती है कलम II
जुल्मत-ए- जिन्दां में मुज़तर हो कोई ,
जीने को इक लौ जलाती है कलम I
हो सितमगर चाहे कितना भी बली,
धूलि ताजों को चटाती है कलम I
जीरो हीरो हीरो जीरो को कहीं,
क्या से क्या किस को बनाती है कलम I
गर छुपा कर भी रखा हो कुछ कहीं ,
खोल के परतें दिखाती है कलम I
इसके तीरों में हो अमृत भी छुपा ,
कब्र के मुर्दे जगाती है कलम I
दिल को तलबारों से जीता है कहाँ ?
दूरियां सब में मिटाती है कलम I
जादू इसमें जो दवा में वो नहीं ,
जख्म-ए-दिल मरहम लगाती है कलम I
दर्द-ए-दिल ‘कंवर’ न खोले गर जुवां ,
तो सुकूं लिख कर दिलाती है कलम I
कंवर करतार
‘शैल निकेत’ अप्पर बड़ोल
दाड़ी धर्मशाला ,हि. प्र .
9418185485