कविता
तुम्हारी सुंदरता देखकर
खो जाता हूँ मैं
खुद में, या फिर तुम मैं?
हां, तुम मैं ही
तुम सा कोई नहीं हो सकता
तुम्हारे होने से मेरा /हमारा
अस्तित्व है इस धरा पर
तुम्हें कितनी फुर्सत से बनाया गया होगा
धूप, पानी, तूफान
ये तो तुम सदियों से सह रहे हो
पर आज
तुम पर भी इंसान हमला कर रहे हैं
वो भी
अपने नए – नए उपकरणों से
ताकि, तुम्हारी सांस निकलने में ज्यादा वक्त न लगे
पर शायद भूल गए हैं
अपनी सांस के बारे में
जब भी तुम्हारी पीड़ा महसूस करता हूँ
रोक नहीं पाता खुद को
तुम्हीं से बने ये
कागज और कलम चलाने से
सचमुच आज तुम भी
सरहदी जवानों की तरह हो गए हो
कभी भी बारुद छलनी कर देगा
ये सब जानते हुए भी
तुम
सृष्टि को बचाने के लिए कटिबद्ध हो
तुम्हारा यही संकल्प
बार – बार तुम मैं
खो जाने के लिए कहता है
तुम सचमुच पूर्ण हो
जड़ों में पानी,
रोम – रोम में हवा,
हर डाली पर फल – फूल,
और क्या चाहिए?
फिर कैसे प्यार न करूँ तुम्हें
ये मेरा स्वार्थ नहीं
मैं तुम्हारे प्यार में रंग के
निस्वार्थ जीना सीख रहा हूँ
तुम पूर्ण नहीं
परिपूर्ण हो।
*दीपक भारद्वाज*