सरे बुतनुमा खामोशी चीखे चिल्लाये फिरता हूं
जर्द दिली लम्सों का मैं बोझ उठाये फिरता हूं
वक्त के चाबुक कोड़ों का मैं रख्शां हो जाता हूं
तकदीर तमाशबीन को खुलके हंसाये फिरता हूं
अर्जी न जाने कितनी रब को मजबूरी ने लिखीं
अंधेरी राहों में खत की मशाल जलाये फिरता हूं
अब नाम नहीं है मेरा कोई जिसे पूछ ये जग मारे
मजहब नहीं अपने अंदर इन्सां बसाये फिरता हूं
मैं रात का डाकिया जुगनू और चांद सितारों में
हवा दरख्त परिंदों को मैं ये समझाये फिरता हूं
धीरज गर्ग