दरक गया पहाड़
फिर से
ग्रास बना है
अनमोल जीवन
दिखाया है प्रकृति ने
विध्वंसक रूप
झिंझोड़ दिया है भीतर तक
मानव सभ्यता की
चेतना को l
उसे भी तो कुरेदा गया था
बड़े दांतों वाली
भारी भरकम मशीनों से
उसकी सिसकियाँ
दब गई थी
बारूद के धमाकों और
मलवे की ढूलाई करते
टीपरों के शोर के बीच l
नहीं सुना गया था
उसकी देह पर उगे
बृक्षों का विलाप
पहाड़ जख्मी था
उसे कहाँ मिल पाया था
अपेक्षित उपचार ?
स्थिर रहा वो
जिजीविषा की
अंतिम सांस उखड़ने तक
संजोए रहा हलाहल
अपने भीतर
उसे दी गई यातनाओं का l
उसके वश में
था ही नहीं अब
खड़े रहना
इसीलिए
दरक गया वह l
उसके बजूद का मिटना
आत्महत्या नहीं
त्रासदी के संकेत देती
उसकी तिल-तिल मरती
मौत का
आँखों देखा
उपेक्षित हुआ
तमाशा है !
सही ही कहा इस विनाश के जिम्मेदार हम ही हैं…..
बहुत सही । प्रकृति के साथ छेड़छाड़ अब भारी पड़ रहा है ।