ग़ज़ल
सर झुका कर राह से जो गुजर रहा हूँ मैं ।
लोग समझ रहे थे यही डर रहा हूँ मैं ।।
मेरा नरम लहजा बात मान लेता है सबकी ।
बस यही एक गुनाह कर रहा हूँ मैं ।।
बातों को तेरी आंख ओझल कर के भी ।
सोचो कब तुझसे बेखवर रहा हूँ मैं ।।
दीवारों पर कब्जा कर मकाँ किसने बनाया ।
मकाँ की चाहत में सदा घर रहा हूँ मैँ ।।
लुट जाने की बात करूँ भी तो किससे करूँ ।
लाश कंधो पे उठा दर ब दर फिर रहा हूँ मैं ।।
मौत भी उठा लाई कब्र से “दीक्षित”को ।
तब से अब तक घुट-घुट के मर रहा हूँ मैं ।।
सुदेश दीक्षित
वधाई भाई दीक्षित जी शानदार ग़ज़ल के प्रकाश नार्थ।