✍?कविता-समाज की आंखें✍?✍?
समाज… समाज… समाज
समाज को देखकर जियो
समाज को देखकर रहो
आखिर ये समाज है क्या?
ये समाज कब देखता है?
किसको देखता है?
किस नजरिए से देखता है?
सुनो मैं बताता हूँ…..
ये समाज भी
अपने कानून जैसा हो गया है
जब देखना चाहिए
देखता ही नहीं
जब कोई किसान आत्महत्या करता है
जब किसी की आबरू से खेला जाता है
जब बिचौलिया तस्कर बनता है
जब समाज की नाक के नीचे
गुनाह पर गुनाह होते हैं
दंगे-फसाद होते हैं
निर्मम हत्याएं होती हैं
बेसहारा लोगों की आंखें रोती हैं
जब एक माँ अपने बच्चे को खोती है
जब थक-हारकर
एक बड़ी आबादी
मौत की नींद सोती है
उस वक्त
ये समाज की आंखें कहाँ होती हैं?
क्या?
समाज की आंखें चाटूकार हो गई हैं
या
मेरी कलम को बुराई की आदत हो गई है?
आपका जवाब अपेक्षित है।
? ?
*दीपक भारद्वाज*
V. Nicely written.. Great work…
Thank you so much
Beautiful ????
Thanks Danish g