शाम हो गई*
वो कहते हैं मेरी कलम बेलगाम हो गई
लगता है मेरी सच्चाई की पैरवी नीलाम हो गई।
झूठ तो नहीं लिखूंगा इमां जिंदा है अभी मेरा
सच्च का साथ ही मंजूर है चाहे जिंदगी हराम हो गई।
सहने की हिम्मत नहीं तो क्यों पढ़ते हो?
मेरी हर बात मुझ पर ही इल्जाम हो गई।
मगर ये लाओ-लपेट की बातें टिकती नहीं ज्यादा
फिर भी सच्च से ज्यादा झूठ की कलाम हो गई।
देखो विद्रोही नहीं देशद्रोही कहने लगे हैं लोग कलम को मेरी
न्याय और समानता के नाम पर कलम मेरी कत्लेआम हो गई।
यहाँ कलम तोड़ी जाती जुबानी तो कौन ही समझेगा
तम देखने से अच्छा है मेरी ये आखिरी शाम हो गई।
*दीपक भारद्वाज*
सुन्दर पंक्तियाँ