ज़िंदगी
कभी ख़ुशी कभी ग़मी का किरदार है।
ज़िंदगी कितनी किस तरह लाचार है।।
चादर जीर्ण सीर्ण रही फटती सिलती।
कभी लगी किनारे ये कभी मझधार है।।
नाम निशान शोहरत सब तो रह गया।
वो जाने बुला लेता कौन सी दयार है।।
गुलशन मुरझायेगा खिलेगा मुड़ कर।
दाता तेरे ही हाथों में ख़िजा है बहार है।।
उम्र उजालों की आँक ले कोई कमतर।
लेकिन नीली छत पे इसका आधार है।।
पंडित अनिल
दुआ सी है
साये में रहती हैं समंदर के रूह मगर प्यासी है।
दिल पे हुकूमत है घर वालों की दुआ सी है।।
हम राज़ कोई अपना छुपाकर नहीं रखते।
बात दीवारों से कर लेते हैं ग़र उदासी है।।
नई दुनिया के लोग दिखाते हैं मुहब्बत वख़रा।
पुराने लोगों में मगर बहुत ही हया सी है।।
बेमरअउवत कुछ लोग देते यहाँ हैं मशविरे।
अपनी किताब-ए-ज़िंदगी तो बयाँ सी है।।
अख़बारों से आशियाना ये बना रख्खा है।
आँधियों ने चिराग़ो को दे दी हवा सी है।।
पंडित अनिल
क्यूँ है
जो भी मिलता है ग़मजदा क्यूँ है।
दूर से आती ये सदा क्यूँ है।।
रोशनी थोड़ी सी छुपा रख्खी थी।
लूटकर जाने की अदा क्यूँ है।।
बेफ़िकर हो गये हम तो तेरे शहर में।
तेरे दर का मौसम जुदा क्यूँ है।।
आदमी आदमी रह जाये तो क्या बुरा।
तुला बनने को खुदा क्यूँ है।।
दोस्त बनकर भी निभा सक्ते हैं रिश्ते।
जान का दुश्मन हुआ क्यूँ है।।
पंडित अनिल
बहाना नहीं होता
आसमान में परिंदों का भी आशियाना नहीं होता।
ख़र्च खुल के वो कर रहे हैं जिनको कमाना नहीं होता।।
पास से गुज़रे गुज़ारिश करते आपने पराये।
अपनों से याराना रिश्ताना निभाना नहीं होता।।
किसको सुनायें यहाँ दर्द-ए दिल की दास्ताँ।
बाबूजी कहते थे यह सबको सुनाना नहीं होता।।
आँखों के अनमोल मोती छुपाये ही रखना।
बेकदर करके इसे यूँ ही बहाना नहीं होता।।
दोस्ती की जात होती है नहीं कोई अनिल।
दोस्ती में कभी कोई भी बहाना नहीं होता।।
पंडित अनिल