अस्तित्व
तड़प उठा सागर
मिला जब नदी से
धन्य हुआ मैं
तेरा मीठा जल पीकर
शर्मिन्दा हूँ
तेरा पावन पवित्र मीठा जल भी
मैंने खारा कर दिया
बाँध दिया तुझे
अटहास करती भ्यानक और क्रूर लहरों में
मिटा दिया तेरा अस्तित्व
छीन ली तेरी उन्मुकता
तेरा सहजपन
तेरा कल कल करता गमन
और मन मोहती बीणा की झंकार
से उठते स्वर
तेरा रंग रुप तेरा स्वाद
तेरा कोमल व्यवहार
सदैव बहते रहने की तत्परता
तेरी सामाजिक, धार्मिक अखण्डता
सदियों से हो रही तेरी मान्यता
तेरे प्रति उनकी आस्था उनका विश्वास
मुझ में समाकर
सब लुप्त हो गया तुम्हारी तरह
तुम्हारे अस्तित्व की तरह।
सुरेश भारद्वाज निराश
धर्मशाला हिप्र
9805385225
मार्मिक सृजन , काश नदी न हो जाती विलीन समुद्र में , वह भी रख पाती रख पाती एक तारिका के सामान गगन में अपना अलग अस्तित्व उसकी भी बनी रहती एक पृथक पहचान |