भारत का खजाना के तहत काव्य महक सप्ताहिक के दूसरे संस्करण में प्रकाशित रचनाओं का आनंद लीजिये
1.रचनाकार:- पीयूष गुलेरी
रचनाएँ :- घर बना रहे हैं
हिंदी दिवस पुनर्पाठ
***घर बना रहे ****
डॉ. पीयूष गुलेरी
आततायी बीमारी के बाद
तब तो बड़ा ही आया था स्वाद
फ़ोन पर जब बोला था लड्डू चोर
नंदकिशोर,. भाई ____
घर आ जाओ न,मन बहला जाओ न ।।
लगी है आस/हम सब हैं उदास
की है अरदास, कि
ठीक होने पर कुछ समय/रहेंगे पास -पास।
***
पता चल गया था मुझे,इधर उधर से
वह उदास रहता था, भगवती से कहता था__
बीमार भाई हो जाए स्वस्थ
मां! मां !! करो आश्वस्त
रख लिए व्रत,टेके माथे,मनाए कुलदेवता
विश्वासी थ:ढ़ियां,बाबे और म:ढ़ियां
मनाया भोलाभाला, पूजा शिवद्वाला
प्रांगण के बाहिर,पीपल का ट्याल़ा ,
देता रहा गवाही, करता वाहवाही
देता है फेरियां , अनगिनत/बिन गिने।।
फ़ोन पर पर बोला था,भाई लड्डू चोर
प्रिय नंदकिशोर__बाबा की कृपा
मढ़ियों की आशिष ,गूंजा शिवद्वाला
खुश हुए भोले,ओले! ओले!! ओले!!!
दैया! दैया!!दैया!!!
मान गई मैया/हुआ आश्वस्त/आप हैं स्वस्थ ।
आ जाओ न/मन बहला जाओ न
******
मैंने माना,घर का जाना, बड़ा ही सुहाना
मां की ममता,प्रेम-प्यार समता
रंग खूब जमता।
बनाए’बेह्ड़े-भटूरू’छोटी भौजाई ने
मतंजना मीठा,शुभ समाचार,रख दिया अचार
पृथक -पृथक नाम के/कटे हुए आम
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इर्द-गिर्द जम गये, डट गए भाई,बेटेव बेटियां
भतीजे-भतीजियां, पोते और नाती
जग गई बाती, अद्भुत – नेह की ।
खी-खी,खी-खी/हो रहा ठठ्ठा,खा रहे भटूरू
सब अनगिने,मिले सब जने
स्वयं को भूल,पेट गये फूल
चढ़ रहे हम सब/आनंद की सीढ़ियां
चार-चार पीढ़ियां ।
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मज़ा कुछ और ही है इस आस्वाद का
अशब्द नि:शब्द सुन्दर स्वभाव का
खुश जन-जन, रोमांचित मन, सिहर उठा तन
प्रेम प्रखर, हर हर हर,शायद इसे कहते
यही है घर ।यही है घर ।।
मां भगवती! मां सरस्वती!!
हे मेरी अंबा!हे जगदम्बा!!
बना रहे घर, घर बना रहे।
हिंदी दिवस पुनर्पाठ
पूरा वर्ष भले सो जाओ
डा.पीयूष गुलेरी
आओ,आओ भाइयों आओ
हिंदी का झगड़ा निपटाओ
सब मिलकर इक स्वर में कह दो
‘शासन में अब हिंदी लाओ’
हिंदी दिवस है इसे मनाओ।
हिंदी_प्रैमी सब मिलकर के____
मियां मिट्ठू बन गाने गाओ
तुक्तक, कविता, गीत बनाओ
अथवा झाड़ो भाषण -भूषण
यह सब निर्भर है तुम पर ही
किस स्तर का आयोजन करते
एक दिवस ही तो आता है
वर्षांतर में।।
खूब जोश से इसे मनाओ
‘ टस से मस नहीं होने वाला’
चाहे रोओ अथवा गाओ
या ऊंचे-ऊंचे चिल्लाओ
पर इस पर सब ही सहमत हैं
‘हिंदी-दिवस ‘ है इसे मनाओ।
फिर तुम बेशक चाए पीकर
अथवा चाट समोसे लेकर
या फिर दही पकौड़ी खाकर
पूरा वर्ष भले सो जाओ।।
******
अपर्णा-श्री हाउसिंग कॉलोनी
चीलगाड़ी धर्मशाला हिमाचल-प्रदेश
पिन १७६२१५
मो.९४१८०१७६६०
दू भा. ०१८९२२१६२२४
2. रचनाकार :- सुरेश भरद्वाज निराश
रचनाएँ :- औकात
ग़ज़ल
औकात
मैं अक्सर अपनी औकात भूल जाता हूँ
सही और अच्छे ख्यालात भूल जाता हूँ।
उजड़ गई दुनियां निशानात भूल जाता हूँ
आँखों से वरसी वो वरसात भूल जाता हूँ।
देती रही है जिन्दगी बेहिसाब कुर्बानयाँ
किसलिये क्यूँकर वो हालात भूल जाता हूँ।
अंधों की नगरी के हम भी तो थे बशिन्दे
मुश्किल जीना औ’ जज्वात भूल जाता हूँ।
रह रह के याद आयें नजदीकियाँ वो तेरी
वो मौत का मंजर वो वारदात भूल जाता हूँ।
जहां तक भी देखता हूँ वीराना ही वीराना
वर्फ लदे पहाड़ औ’ जंगलात भूल जाता हूँ।
हैं मेहनत कश बहुत किसान मेरे देश के
अब मैं अमरीकन वो खैरात भूल जाता हूँ।
तेरी चाहत में जीना क्यूँ अभिशाप हो गया है
वो साँसौं की गर्मी वो मुलाकात भूल जाता हूँ।
अब ढलती उमर में पत्नी गुरु हो गयी है
चरण देखता हूँ सुहागरात भूल जाता हूँ।
सच और झूठ में दिखता नहीं है अन्तर
अहंकार में ‘उसकी’ करामात भूल जाता हूँ।
क्या कहना है अब इस भयावह जिन्दगी का
पूछे हुए वो खुद को सवालात भूल जाता हूँ।
तेरी चाहत को रखा मैंने सीने में छुपा कर
निराश तुझ से अपनी गलबात भूल जाता हूँ।
सुरेश भारद्वाज निराश
धौलाधार कलोनी लोअर बड़ोल
पीओ दाड़ी धर्मशाला हिप्र
176057
मो० 9418823654
ग़ज़ल
122 122 122 12
न जाने मुझे वो क्या कह गया
मैं यूँ ही उसे देखता रह गया
न मैंने थी कोई शिकायत करी
क्यूँ वदजात कोई मुझे कह गया
था माना मसीहा तुझे हमने भी
तेरे पास मेरा था दिल रह गया
वो जव भी मिला नींद मेरी गयी
मैं अंजाम चाहत का भी सह गया
गुनाहों से था मैं न निकला कभी
न आँखों से मेरी वो गम बह गया
न सपना मिरा था हकीकत हुआ
महल वो खियाली मेरा ढह गया
‘निराश’ ये किस्मत हुई ना मिरी
मैं उसके वो नखरे यूँ ही सह गया
सुरेश भारद्वाज निराश
बड़ोल (धर्मशाला) हिप्र
9805385225
3.रचनाकार :- नंद किशोर परिमल
रचनाएँ:- पथिक
पड़ोसी को हम कैसे बदलें
(पथिक)
पथिक तेरा नाम दुर्लभ, बात मेरी यह याद रखना।
रास्ता हो कितना दुर्गम, तुझको आगे है निकलना।
मग में हों घनघोर जंगल, पहाड़ कंदराओं की परवाह न करना।
तुझे तो आगे ही निकलना, मात्र आगे है निकलना।
नदी नाले पथ न रोक पाएं, वन्य प्राणियों से तूं न डरना।
अपनी राह तूं चले चलना, तुझे तो अपनी राह निकलना।
ऊंचे हों बर्फानी टीले, या राह में हों मरुस्थल रेतीले।
पथ न तेरा रोक पाएं, चाहे पेड़ हों कितने कंटीले।
रास्ते में गगन कितने तुझको मिलेंगे, कभी इनसे तू न डरना।
मुसीबतें जितनी भी मिलेंगी, तुझको राह अपना है पार करना।
पथिक तेरा काम दुर्लभ, पल भर न तुझको है आराम करना।
आगे आगे है निकलना, पीछे कभी तुझको नहीं है मुड़ना।
बुलंद तेरा हौसला देख, सारी बाधाएं हट जाएंगी खुद तेरे पथ से।
न रोक पाएं राह तेरा, तुझको तो सिर्फ़ है नई राह चलना।
व्योम भी पथिक, तुझे देखता है, अंततः तुझे है वहीं बढ़ना।
ग्रह – तारे तुझको हैं गिनने, रहस्य उन सब का है शेष मिलना।
जब तक रहस्य जग के शेष जितने,नहीं तब तक तुझको है कहीं रुकना।
पथिक तेरा नाम दुर्लभ, विश्राम तुझको पलभर जीवन में है नहीं करना।
परिमल भी पथिक है तेरा दीवाना, नाम अपना तूं सार्थक करना।
मंजिल मिलने तक है चलना, पथ से अपने न तूं कभी भटकना।
पथ से अपने न तूं कभी भटकना।।
नंद किशोर परिमल, से. नि. प्रधानाध्यापक
गांव व डा, गुलेर, तह. देहरा (कांगड़ा) हि. प्र
पिन 176033, संपर्क 9418187358
पड़ोसी को हम कैसे बदलें
गढ़े मुर्दों को अब मत और उखाड़ो, भद्दी बातों पर अब पर्दा डालो।
अच्छाईयां सबकी तुम ले लो, बुरी बुराई उसकी गोद में डालो।
दो दिन का तो जीवन है यह, कभी किसी से मत कड़वा बोलो।
दो तोले की ये जीभ हमारी, सर सर करती यह कभी न थकती।
क्या बोलें और क्या न बोलें, बोलने से पहले शव्द को तोलो।
निकली मुंह से बात न वापस आए, बड़े बड़े कुफ्र यह ढाए।
अपनों को यह बेगाना कहती, गुस्सा आए तो मन में पी लो।
दुर्गंध में कभी न पत्थर फेंको, अपने भीतर तुम हरदम झांको।
परिमल हर सू सुगंध विखेरो, दुर्गंध पर तुम मिट्टी डालो।
पथ चलते जो तुम को मिलता, वही सगा है अपना प्यारा।
मीठी उससे दो बातें कर लो, इसी में बहती है प्रेम की धारा।
दो बर्तन जो होंगे रखे घर में, वो भी तो अक्सर टकराते हैं।
मन मुटाव में रखा क्या है, मिल बैठकर सलाह मशविरा कर लो।
दोस्त तो बदले जा सकते हैं, पड़ोसी को हम कैसे बदलें।
प्रेम से रहना उसे सिखाओ, कह दो मुर्दे गढ़े अब न और उखाड़ो।
बनती बात न कभी बिगाड़ो, अपना घर बसता न और उजाड़ो।
पाकिस्तान से कह दो जा कर, जोरा जोरी न और चलेगी।
बेपर्दा अब तुम हो चुके बहुत हो, सीनाजोरी न अब काम करेगी।
अच्छे पड़ोसी सम रहना सीखो, कारस्तानी अब करना छोड़ो।
कश्मीर में दखलंदाजी छोड़ कर, मुंह आतंकियों का घर को मोड़ो ।
आस्तीन में सांप और न पालो, अच्छे पड़ोसी सम रहना सीखो।
वरन् चूड़ियाँ हमने नहीं पहनीं, कश्मीर की रट लगाना अब तुम छोड़ो।
अच्छे पड़ोसी के गुण सब अपना कर, जन विकास में ध्यान लगाओ।
परिमल भलाई इसी में हम सबकी, भारत को तुम न अब और सताओ।
नंद किशोर परिमल, गांव व डा, गुलेर
तह, देहरा, जिला, कांगड़ा (हि, प्र)
पिन – 176033, संपर्क, 9418187358
4. रचनाकार :- डॉ मीना कौशल
रचनाएँ :- बेटी
बेटी
बेटी
बेटी बेटी होती है,
जाति धर्म न सम्प्रदाय से इसका कोई नाता।
इनको ही हर अनुष्ठान के
पहले पूजा जाता।।
फिर बेटी पर क्यों कोई
महिषासुर आँख उठाता।
धरा विदीर्ण नहीं होती
न पापी कहीं समाता।।
करे कुठाराघात कुचाली
मौत नहीं वो पाता।
न्याय कहाँ है आज धरा पर
काहे मौन विधाता।।
डा.मीना कौशल
उ. प्र.,गोण्डा
मैं आपकी प्रतिबिम्ब हूँ,पहचान आपकी।
मैं आपकी विश्वास हूँ,अरमान आपकी।।
सम्बल मुझे मिलता रहा,है नेह आपका।
गर्व है कि पुत्री, मैं पिता महान की। ।
बेटे की तरह पालके,मुझको बड़ा किया।
निज स्नेह के सोपान पे,मुझको खड़ा किया।।
सुख त्याग दिया अपना,मंजिल मुझे दिया।
बन शम्भु विष पिया,अमृत मुझे दिया।।
स्मृति मे अब हमारे,बस मूर्ति आपकी।
हैआज देती सम्बल,स्फूर्ति आपकी।।
पाती समक्ष अब भी,मन से पुकारती।
आशीष संग मेरे,है दीप्ति आपकी।।
निज नेह से सींचकर,मानस विमल किया।
त्याग तप से अपने,आलोक भर दिया।।
चल स्वयं कंटकों पर,पुष्पित किया मेरा पथ।
बन करके स्वयं दीपक,प्रकाश भर दिया।।
Dr . Meena kumari
5. रचनाकार :- राम भगत नेगी
रचनाएँ : जिंदगी का सफर
दुनिया गोल है
…………..जिंदगी का सफर ……….
जिंदगी के रास्ते में
मुसीबत और मुशकिले है
रास्ते में हर जगह
पथ्थर और काँटे भी मिलते है
दुनियाँ बहुत बड़ी है,भीड़ भरी इस दुनियाँ में
चोर लुटेरे भी मिलते है
चाँद सूरज के इस चमकते दुनियाँ में
कहीं पर घोर अँधेरा भी होता है
12महीने का एक वर्ष है हर महीने यहाँ
दुख : सुख भी मिलते है
मेरा तेरा अपना पराया
कोई ना यहाँ अब तक है रह पाया
जन्म और मृत्य के इस दुनियाँ में
सब मिलते है और बिछुड़ते है
ये जिंदगी का सफर है
कभी हँसता है कभी रूलाता है
मत बन तु कठोर ए मानव
ना इन्सान से बन तु दानव
हँस खेल कर जी जिंदगी
मत उलझ अपने आप से
खुद भी जी ओरों को भी जीने दे
प्यार मोहब्बत की दुनियाँ बसा
नफरत को दिल से हटा
प्यार को दिल में बसा
जिंदगी का सफर जीओ नॉन स्टॉप
कल क्या होगा लगाओ फूल स्टॉप
मुशकिले और मुसीबत से नीकल
राम नाम का गीत गा हर पल
जिंदगी जी खुल कर
राम नाम जप हर पल
जिंदगी की सफर कट जायेगी
मुश्किलें अपने आप हट जायेगी
जय माता दी
राम भगत किन्नौर मौलिक
अप्रकाशित
9816832143
दुनियाँ गोल है
पत्थरों को टूटते देखा है
बैंक को लूटते देखा है
नेताओ को बोलते देखा है
नेताओं के तिजोरियां भरते हुवे देखा है
किसानों को मरते देखा है
अबला नारी को लूटते देखा है
नोट बंद होते देखा है
बाबाओं को डोंगी करते देखा है
जिओ से लोगों को जुड़ते देखा है
काला धन को बढ़ते हुवे देखा है
रिशवत का दामन गहरे होते देखा है
Gst से बढ़ती लूट को देखा है
पकौड़े से रोजगार की मजबूती को देखा है
नोट से वोट की लूट को देखा है
मंदिर मस्जिद को लड़ते हुवे देखा है
जाती की खिचड़ी बनते हुवे देखा है
हर हर मोदी घर घर मोदी
नीरव मोदी को देश भागते हुवे देखा है
योग बाबा से व्यापारी राजा बनते देखा है
वोट के लिये नेताओं को हिन्दू बनते देखा है
क्या क्या देखना पता नहीं
आज ही पता चला क्यू कहते है दुनियाँ गोल है
राम भगत किन्नौर
9816832143
सम्पादक भारत का खजाना ऑनलाइन पत्रिका
आशीष बहल
बेहद आनंद मयी और भावनाओं को जागृत करती रचनाएं
sundr ji
बहुत सुंदर सभी की रचनायें
सुंदर रचनाओ का संग्रह । कवियो ने आज के जमाने की परिस्थितयो का सुंदर चित्रण किया है ।